एक
अन्जान सी मुस्कुराहट जो किनारों में छुपी रहती थी
वो
गिरते आँसू के साथ ज़मीं पर बिखर गयी
अब बढ़ाता हूँ हाथ तो खींचती है मुझको
और कहती है… आ बिखर जा तू भी मेरे साथ यहीं।
यहाँ धूप की रोशनी और छांव की सहर है
है दिन की ताज़गी , मौसमों के पहर हैं,
यहाँ गिरती बूंदों में कभी मिट्टी की महक है
यहाँ पेड़ से सूखे पत्तों के गिरने की खनक है।
यहाँ रंग है, रंगोली है, पटाखों की जगमग शाम है,
यहाँ खेल है, मस्ती है, हाथों से छूटते जाम हैं।
यहाँ हज-तीरथ दोनों ही हैं, यहाँ अल्लाह और भगवान हैं,
यहाँ प्यार नहीं सिर्फ कहने को, यहाँ वीरों के बलिदान हैं।
है नहीं ये जगह उस दुनिया जैसी, जहाँ धोखा और मक्कारी है,
है नहीं ये जगह उस दुनिया जैसी, जहाँ पलड़ों में तुलती रिश्तेदारी है।
न रंज यहाँ, न द्वेष यहाँ, न जात-पात की भाषा है,
न लोभ यहाँ, न क्रोध यहाँ, न ज़्यादा पाने की अभिलाषा है।
है नहीं ये जगह उस दुनिया जैसी, जहाँ छुप के रहना पड़ता था,
एक ग़म में खो जाने के, डर में जीना पड़ता था।
कहती
है, आ तू भी आ, बिखर जा मेरे साथ कहीं,
ये
जीवन भी तो मिट्टी है, मिल जाने दे इसको आज यहीं।